मुगल साम्राज्य के इतिहास में कई शानदार शासक हुए, लेकिन जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1542-1605) का स्थान अद्वितीय है। उन्हें न केवल उनकी सैन्य विजयों और विशाल साम्राज्य के लिए याद किया जाता है, बल्कि उनकी प्रगतिशील नीतियों, धार्मिक सहिष्णुता और कला-संस्कृति के प्रति उनके गहरे सम्मान के लिए भी वे 'अकबर महान' कहलाए। उनका 49 वर्षों का शासनकाल भारतीय इतिहास का एक ऐसा स्वर्णिम अध्याय है जिसने देश की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना पर गहरी छाप छोड़ी।
बचपन और सिंहासन तक का सफर
अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को सिंध के उमरकोट के किले में हुआ था, जब उनके पिता हुमायूँ शेरशाह सूरी से पराजित होकर भटक रहे थे। उनका बचपन कठिनाइयों में बीता, लेकिन इसने उन्हें जीवन के प्रति एक व्यावहारिक दृष्टिकोण विकसित करने में मदद की। 1556 में हुमायूँ की अचानक मृत्यु के बाद, मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में अकबर को कलानौर (पंजाब) में मुगल सिंहासन पर बैठाया गया। उस समय, मुगल साम्राज्य अभी भी नाजुक स्थिति में था और कई आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना कर रहा था।
प्रारंभिक वर्षों में, अकबर ने अपने बुद्धिमान और शक्तिशाली संरक्षक बैरम खान के मार्गदर्शन में शासन किया। बैरम खान ने युवा सम्राट की रक्षा की, उन्हें शिक्षित किया और साम्राज्य को स्थिर करने के लिए महत्वपूर्ण सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। पानीपत की दूसरी लड़ाई (1556) में हेमू को पराजित करना उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक थी, जिसने मुगल सत्ता को फिर से स्थापित किया। हालांकि, अकबर धीरे-धीरे बैरम खान के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे। 1560 में, अकबर ने उन्हें पद से हटा दिया और मक्का की तीर्थयात्रा पर जाने का आदेश दिया। अकबर की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और संभवतः बैरम खान की पत्नी के प्रति उनकी कथित इच्छा भी शामिल थी। बैरम खान के साथ दुर्व्यवहार की घटना इतिहास में एक विवादास्पद विषय बनी हुई है।
साम्राज्य का विस्तार और सुदृढ़ीकरण
अकबर एक असाधारण सैन्य नेता और रणनीतिकार थे। उन्होंने अपने शासनकाल में मुगल साम्राज्य का तेजी से विस्तार किया। उन्होंने राजपूत राज्यों (मेवाड़ को छोड़कर), मालवा (1562), गुजरात (1572-73), बंगाल (1576), बिहार, उड़ीसा और कश्मीर (1586) जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिलाया। उन्होंने सिंध और कंधार पर भी अपना नियंत्रण स्थापित किया। उनकी सैन्य सफलता न केवल उनकी व्यक्तिगत बहादुरी बल्कि उनके कुशल सेनापतियों और उन्नत सैन्य तकनीकों के कारण भी संभव हुई। उन्होंने तोपखाने का प्रभावी उपयोग किया और अपनी सेना को अनुशासित रखा।
धार्मिक सहिष्णुता और 'दीन-ए-इलाही'
अकबर की सबसे प्रगतिशील नीतियों में से एक उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी। उन्होंने महसूस किया कि एक विशाल और विविध साम्राज्य को एकजुट रखने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना आवश्यक है। उन्होंने सभी धर्मों के विद्वानों के साथ नियमित रूप से चर्चाएँ कीं। उन्होंने 1575 में फतेहपुर सीकरी में 'इबादत खाना' (प्रार्थना घर) बनवाया, जहाँ विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं के बीच धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर वाद-विवाद होते थे। इन चर्चाओं से उन्हें विभिन्न धर्मों के सार को समझने में मदद मिली।
1582 में, अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' ('ईश्वरीय धर्म') नामक एक नई धार्मिक विचारधारा की शुरुआत की। यह धर्म इस्लाम, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म और पारसी धर्म जैसे विभिन्न धर्मों के सर्वोत्तम तत्वों को मिलाकर बनाया गया था। इसका उद्देश्य साम्राज्य में शांति और एकता स्थापित करना था। हालांकि, 'दीन-ए-इलाही' को व्यापक स्वीकृति नहीं मिली और यह अकबर की मृत्यु के बाद समाप्त हो गया। फिर भी, उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने मुगल साम्राज्य में धार्मिक सद्भाव और शांति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने हिंदुओं पर लगने वाले तीर्थयात्रा कर और जजिया कर को समाप्त कर दिया, जिससे गैर-मुस्लिम आबादी के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ी।
प्रशासनिक सुधार
अकबर ने एक मजबूत और कुशल प्रशासनिक प्रणाली की नींव रखी। उन्होंने साम्राज्य को विभिन्न 'सूबाओं' (प्रान्तों) में विभाजित किया, जिनका प्रशासन गवर्नर (सूबेदार) द्वारा किया जाता था। उन्होंने 'मनसबदारी' प्रथा शुरू की, जो अधिकारियों को उनके पद और सैन्य जिम्मेदारियों के अनुसार रैंक (मनसब) प्रदान करती थी। यह प्रणाली सैन्य और नागरिक प्रशासन को एकीकृत करती थी।
भूमि राजस्व प्रणाली में टोडर मल द्वारा किए गए सुधार अकबर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उन्होंने भूमि का सर्वेक्षण करवाया और उपज के आधार पर कर निर्धारित किया। 'ज़ब्ती' प्रणाली के तहत, किसानों को नकद में कर चुकाने की अनुमति थी, जिससे व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला। उन्होंने किसानों के हितों की रक्षा के लिए कई नियम बनाए और अकाल या फसल खराब होने की स्थिति में राहत प्रदान की।
कला, साहित्य और वास्तुकला का संरक्षण
अकबर कला, साहित्य और वास्तुकला के एक महान संरक्षक थे। उनका दरबार विद्वानों, कवियों, संगीतकारों और कलाकारों से भरा रहता था, जिन्हें 'नवरत्न' (नौ रत्न) के रूप में जाना जाता था। इनमें अबुल फजल (जिन्होंने 'अकबरनामा' और 'आईन-ए-अकबरी' जैसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कृतियाँ लिखीं), फैजी (एक प्रसिद्ध कवि), तानसेन (महान संगीतकार), बीरबल (अपने बुद्धि और हास्य के लिए जाने जाते थे), टोडर मल (कुशल वित्त मंत्री), अब्दुर रहीम खान-ए-खाना (एक कवि और विद्वान), मुल्ला दो पियाजा, हकीम हुमाम और शेख अबुल फजल के भाई शेख मुबारक शामिल थे।
अकबर के शासनकाल में मुगल वास्तुकला अपने शिखर पर पहुंची। फतेहपुर सीकरी, जिसे अकबर ने अपनी राजधानी बनाया, मुगल वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। बुलंद दरवाजा, जो गुजरात की विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया था, अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। आगरा का किला, लाहौर का किला और इलाहाबाद का किला भी उनके शासनकाल की महत्वपूर्ण स्थापत्य कृतियाँ हैं। उन्होंने हिंदू और इस्लामी वास्तुकला शैलियों के मिश्रण को प्रोत्साहित किया, जिससे एक नई और अनूठी शैली का विकास हुआ।
अकबर ने साहित्य को भी बढ़ावा दिया। उनके दरबार में रामायण, महाभारत और अथर्ववेद जैसे कई संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया गया। उन्होंने फारसी और हिंदी कवियों को समान रूप से संरक्षण दिया। संगीत भी उनके दरबार में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था, और तानसेन जैसे संगीतकारों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। चित्रकला के क्षेत्र में, मुगल चित्रकला शैली का विकास अकबर के शासनकाल में हुआ, जिसमें भारतीय और फारसी शैलियों का समन्वय था।
1605 में अकबर की मृत्यु हो गई, लेकिन उनकी विरासत आज भी भारतीय इतिहास और संस्कृति में जीवित है। उन्हें एक दूरदर्शी शासक, एक कुशल प्रशासक, एक उदार और सहिष्णु सम्राट के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने एक ऐसे भारत की नींव रखी जहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग शांति और सद्भाव के साथ रह सकें। उनकी नीतियां और प्रशासनिक सुधार आने वाली पीढ़ियों के शासकों के लिए एक मॉडल बने। अकबर का दृष्टिकोण समावेशी और प्रगतिशील था, और उन्होंने अपने साम्राज्य को एकजुट और समृद्ध बनाने के लिए अथक प्रयास किया। उनका योगदान भारतीय इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।